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इस्लामिक बैंकिंग सिस्टम – हलाल फाइनेंस ( Islamic Banking System Halal Finance Hindi – Authentic Details)

इस्लामिक बैंकिंग सिस्टम – हलाल फाइनेंस ( Islamic Banking System Halal Finance )

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इस्लामिक बैंकिंग सिस्टम एक ऐसा माली (financial) सिस्टम है जो कुरआन और सुन्नत की रहनुमाई में चलता है। इसमें सूद (interest/riba) की सख्त मनाही है और इसकी जगह मुनाफ़ा (profit) और नुकसान (loss sharing) के उसूल पर काम होता है।

कुरआन में रिबा (ब्याज) की मनाही ( Islamic Banking System Halal Finance )

अल्लाह तआला ने कुरआन में रिबा को सख्ती से मना किया है –

“अल्लाह ने खरीद-फरोख़्त को हलाल किया है और सूद को हराम किया है।”
(सूरह अल-बक़रह 2:275)

“ऐ ईमान वालों! अगर तुम सच्चे मोमिन हो तो जो कुछ सूद बाक़ी रह गया है उसे छोड़ दो।”
(सूरह अल-बक़रह 2:278)

ये आयत साफ़ बताती है कि इस्लाम में कारोबार हलाल है, लेकिन ब्याज लेना-देना हराम है।

हदीस में रिबा की सख्त मनाही ( Islamic Banking System Halal Finance )

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलय्हि वसल्लम ने फरमाया – 
“रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलय्हि वसल्लम ने सूद खाने वाले, सूद देने वाले, उसका लिखने वाले और उसके गवाह बनने वाले सब पर लानत की और फरमाया कि ये सब बराबर हैं।”
(सहीह मुस्लिम, हदीस: 1598)

यहां यह हदीस हमें बताती है कि सूद सिर्फ लेने वाला ही नहीं, बल्कि देने वाला और उस सिस्टम का हिस्सा बनने वाला हर शख्स गुनाहगार है।

इस्लामिक बैंकिंग का इतिहास ( Islamic Banking System Halal Finance )

इस्लामिक बैंकिंग का आइडिया नया नहीं है। सहाबा-ए-कराम के दौर से कारोबार मुशारका (partnership) और मुदारबा (investment contract) के जरिए होता था। 20वीं सदी में जब दुनियाभर का बैंकिंग सिस्टम ब्याज पर टिका हुआ था, तो मुस्लिम दुनिया ने एक वैकल्पिक सिस्टम तलाशा।

इस्लामिक बैंकिंग का कॉन्सेप्ट ( Islamic Banking System Halal Finance )

इस्लामिक बैंकिंग पांच बुनियादी उसूलों पर खड़ी है:

  1. रिबा (interest) की मनाही
    इस्लामिक बैंकिंग में किसी भी तरह का ब्याज नहीं लिया या दिया जाता। मसलन, अगर कोई शख्स बैंक से 10 लाख रुपये घर खरीदने के लिए लेता है, तो नॉर्मल बैंकिंग में उसे 20 साल बाद 20 लाख लौटाने पड़ेंगे। जबकि इस्लामिक बैंकिंग में बैंक सीधे घर खरीदेगा और मुनाफ़े के साथ बेच देगा। मसलन, 10 लाख का घर बैंक 12 लाख में देगा और वो किश्तों में चुकाना होगा — ये ब्याज नहीं बल्कि ट्रेड है।

  2. मुशारका (partnership)
    इस मॉडल में बैंक और कस्टमर दोनों पैसे लगाते हैं। अगर कारोबार मुनाफ़ा देता है तो दोनों को हिस्सा मिलता है, अगर नुकसान होता है तो दोनों पर बराबर असर पड़ता है। इससे exploitation खत्म हो जाता है।

  3. मुराबहा (cost-plus financing)
    यह एक तरह की सेल है जिसमें बैंक किसी चीज़ को खरीदकर कस्टमर को तयशुदा मुनाफ़े के साथ बेचता है। मसलन, अगर कोई क्लाइंट कार खरीदना चाहता है, तो बैंक पहले कार खरीद लेगा और फिर उसे थोड़े मुनाफ़े के साथ किस्तों पर बेच देगा।

  4. इजारा (leasing)
    इसमें बैंक किसी प्रॉपर्टी या मशीनरी को अपने पास रखता है और क्लाइंट को किराए पर देता है। किराया तयशुदा होता है और ब्याज की जगह हलाल आय होती है।

  5. हलाल कारोबार की शर्त
    इस्लामिक बैंक सिर्फ हलाल कारोबार में पैसा लगाता है। शराब, जुआ, सूअर से जुड़ी इंडस्ट्री या किसी हराम बिज़नेस में निवेश की इजाज़त नहीं।

इस्लामिक बैंक कैसे पैसा कमाता है? ( Islamic Banking System Halal Finance )

इस्लामिक बैंक मुनाफ़ा शेयरिंग और ट्रेड से कमाता है, ब्याज से नहीं।

मशहूर हलाल बैंक ( Islamic Banking System Halal Finance )

मुल्क जो इस्लामिक बैंकिंग को सपोर्ट करते हैं ( Islamic Banking System Halal Finance )

इस्लामिक बैंकिंग के मॉडर्न फायदे ( Islamic Banking System Halal Finance )

1. गरीबी कम करने में मददगार

इस्लामिक बैंकिंग का मकसद गरीब और जरूरतमंद लोगों की मदद करना है। क़रज़-ए-हसना (interest-free loan) की वजह से गरीब लोग बिज़नेस शुरू कर पाते हैं। उदाहरण के तौर पर, पाकिस्तान और मलेशिया में इस्लामिक माइक्रो-फाइनेंस प्रोग्राम्स से हज़ारों छोटे कारोबारी हलाल तरीके से खड़े हुए हैं।

2. Financial Inclusion

कई मुसलमान नॉर्मल बैंकिंग से दूरी रखते हैं क्योंकि उसमें सूद होता है। इस्लामिक बैंकिंग उन्हें भरोसा दिलाती है और वो बैंकिंग सिस्टम का हिस्सा बनते हैं। इससे समाज का हर तबका फाइनेंशियल सर्विसेज से जुड़ता है।

3. इंसाफ़ और बराबरी

नॉर्मल बैंकिंग में कर्ज़ लेने वाला हमेशा दबाव में रहता है — चाहे बिज़नेस चले या डूबे, ब्याज तो देना ही है। लेकिन इस्लामिक बैंकिंग में मुनाफ़ा और नुकसान दोनों पक्षों में बांटे जाते हैं। यह सिस्टम exploitation और ज़ुल्म से बचाता है।

4. हराम इंडस्ट्री से दूर

इस्लामिक बैंक शराब, जुए और हराम बिज़नेस में पैसा नहीं लगाते। यह एक नैतिक (ethical) सिस्टम है, जो समाज को गंदगी से दूर रखता है।

5. सस्टेनेबल डेवलपमेंट

इस्लामिक बैंकिंग हमेशा असली एसेट और प्रोडक्ट्स पर आधारित होती है। इस वजह से 2008 की ग्लोबल फाइनेंशियल क्राइसिस के दौरान कई इस्लामिक बैंक बच गए, जबकि ब्याज पर चलने वाले बैंक डूब गए।

6. ग्लोबल अडॉप्शन

आज UK, जर्मनी, सिंगापुर और साउथ अफ्रीका जैसे गैर-मुस्लिम मुल्क भी इस्लामिक बैंकिंग सर्विस चला रहे हैं। यह साबित करता है कि यह सिस्टम सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि एक मजबूत इकॉनॉमिक मॉडल भी है।

ब्याज पर आधारित Loan Culture की तबाही ( Islamic Banking System Halal Finance )

आजकल घर खरीदने, गाड़ी लेने या एजुकेशन के लिए लोग ब्याज वाले लोन लेते हैं। शुरुआत में आसान लगता है, लेकिन वक़्त के साथ कर्ज़ इतना बढ़ जाता है कि इंसान की आधी ज़िंदगी EMI चुकाने में निकल जाती है।

इस्लाम ने इसी वजह से ब्याज को हराम किया, क्योंकि यह इंसान को ग़ुलाम बना देता है। इस्लामिक बैंकिंग इन लोन को हलाल तरीके से देता है ताकि इंसान कर्ज़ के बोझ में दबा न रहे।

कुरआन और हदीस की रहनुमाई ( Islamic Banking System Halal Finance )

“अल्लाह रिबा को मिटाता है और सदक़ात को बढ़ाता है।” (सूरह अल-बक़रह 2:276)

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलय्हि वसल्लम ने फरमाया – 
“सूद खाने वाला और खिलाने वाला दोनों जहन्नम के हक़दार हैं।” (सुनन इब्ने माजा, हदीस: 2277)

FAQs ( Islamic Banking System Halal Finance )

1. इस्लामिक बैंकिंग और नॉर्मल बैंकिंग में फर्क क्या है?
नॉर्मल बैंकिंग ब्याज पर चलती है, जबकि इस्लामिक बैंकिंग मुनाफ़ा-नुकसान शेयरिंग पर।

2. क्या इस्लामिक बैंकिंग सिर्फ मुसलमानों के लिए है?
नहीं, कोई भी इसका फायदा उठा सकता है।

3. इस्लामिक बैंक कैसे फायदा कमाता है?
प्रॉफिट-शेयरिंग, मुराबहा और लीजिंग से।

4. क्या इंडिया में इस्लामिक बैंकिंग मौजूद है?
इंडिया में बाकायदा इस्लामिक बैंक नहीं, लेकिन कुछ शरिया-complaint NBFC और फंड्स मौजूद हैं।

5. क्या इसमें रिस्क ज्यादा होता है?
रिस्क शेयर किया जाता है, इसलिए एकतरफा नुकसान नहीं होता।

जज़ाकल्लाह खैर।

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